UMEED
रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में
नज़र आये गा |
यह ब्लॉग खोजें
मंगलवार, 2 अगस्त 2011
उलाहना
एक
-------
मै
चाहती
हूँ
मरुस्थल
बन
के
तुम्हारा
सारा
दुःख
पी
जाऊ
और
तुम्हे
खबर
भी
न
हों
मगर
तुम
बिन
बरसे
बदल
की
तरहां
मुंह
चिढाते
उपर
से
गुज़र
जाते
हो
ये
तुम
क्यूँ
कर
ऐसा
कर
जाते
हों
दो
-----
तुम
आज
फिर
मुझे
परिंदे
सा
छू
कर
चले
गये
मै
आज
फिर
उसी
जानी
पहचानी
सिहरन
में
जी
जी
उठी
मर
मर
उठी
नई पोस्ट
पुराने पोस्ट
मुख्यपृष्ठ
सदस्यता लें
संदेश (Atom)