आज फिर रोज़ की तरह
चुप चाप अपनी तपिश को कम करती हुई धूप
देखो दरो दीवार से होते हुए ज़मी पे आ गयी
ये कैसी ज़िन्दगी है जो
रोज़ जन्म लेती है
तिल तिल करके मरती है
दूसरे दिन फिर
उतनी ही तारो ताज़ा है सुबह
उतनी ही सख्त है दोपहर
उतनी ही उदास है शाम
ये कैसा सिलसिला है
जो अक्सर इंसान की ज़िन्दगी से मेल नहीं खता
यहाँ भी तो
मुखर शुरुवात होती है
खूब ऊँची उंचाई होती है
बहुत गहरी गहराई होती है
बहुत कम होते है ऐसे लोग
जो तरो ताजा होते है हादसे के बाद
वरना अक्सर गहरी गहराई ले डूबी है उन्हें
शायद
धूप सा होना आसान नहीं है
राजवन्त राज
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