जब कोई दरख्त पत्तों से किनाराकशी करे
तो पतझड़ है ऐसा बताते हो तुम
पर वक्त ही जब बेवक्त झिडक दे
तो उसे क्या नाम देते हो तुम ?
समन्दर की मौजें चीख के कहती है ,
रहने दो अब ना सताओ उसे |
आसमाँ उसकी बेबसी पे
चंद कतरे आसूं के बहा सके
ऐसा भी तो नही , शायद बेबस है |
इस खूबसूरत समाज में देखो ना
क्या औकात है दरम्याने इन्सान की ,
आज की साँस भी उधर लिए बैठा है |
कल की खुराक का क्या आलम होगा
ये सोच सोच के अपनी रात काटता है |
कुछ ना मिले तो अपने जिस्म का लहू बेचो
उस पर तो हक अपना है , वो तो बेवफा नहीं?
चार पल की खोखली जिन्दगी
दो पल में सिमट आये , हाँ ऐसा भी हुआ है |
manav ke anatar davand ko abhivyakt karti bahut khubsurat kavita.....
जवाब देंहटाएंye smaj ka ek bhut hi tklefdeh such hai . jinda rhne ke liye jism me khoon chahiye , kya vidmbna hai ki isi khoon ko bech kr vo do roti khata hai our fir jinda rhne ki kvaydt me lg jata hai .
जवाब देंहटाएंaapne kvita ke mrm ko smjha , dili khushi hui