रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |
यह ब्लॉग खोजें
सोमवार, 26 जुलाई 2010
माँ
मैंने देखा है उसे
बार बार
कई बार
बहुत बार
मगर उसकी जगह बदली नही है |
उसी रेलवे पुल के नीचे
चिथड़ों में लिपटी
पीली पीली सूखी निगाहों से
वह हर आते जाते को तकती है ,
वह अपने गुमशुदा बच्चे को
तलाशती है
उसे जिसे वह बरसों पहले
इसी भीड़ में खो चुकी है |
एक यकीन है उसे कि वह मिल जायगा
और वह उसे उसी तरह पहचान लेगी
जिस तरह वफादार कुत्ता अपने मालिक को
बरसों बाद पहचान लेता है |
ये बात मैंने नही खुद उसने कही है
तब, जब गिरने से उसके घुटने
छिल गये थे और वो रो रही थी कि
''अब मुझे मेरा लाडला मिल जाना चाहिए ''
पर कोई उसका बच्चा बनने को तैयार नही |
इस सच से नावाकिफ , जबर्दस्त यकीन के साथ
उसी पुलिया के नीचे
वह आज भी हर आते जाते को तकती रहती है
क्यों कि
वह माँ है |
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
bahut achchi lagi.
जवाब देंहटाएंthanks mridula ji ,aap phli bar mere blog pr aai .
जवाब देंहटाएंRAJWANT RAJ JI
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
मां बहुत भावपूर्ण रचना है ।
दुखिया ग़रीब की बात कौन समझता है ?
अच्छी कविता के लिए बधाई !
शस्वरं पर भी आपका हार्दिक स्वागत है , अवश्य आइए…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
बहुत सुन्दर, बेहद प्रभावशाली, कमाल कि अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएं