रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

यह ब्लॉग खोजें

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

उलाहना




एक

-------
मै चाहती हूँ मरुस्थल बन के
तुम्हारा सारा दुःख पी जाऊ
और तुम्हे खबर भी हों
मगर तुम बिन बरसे बदल की तरहां
मुंह चिढाते उपर से गुज़र जाते हो
ये तुम क्यूँ कर ऐसा कर जाते हों


दो
-----
तुम आज फिर मुझे
परिंदे सा छू कर चले गये
मै आज फिर उसी
जानी पहचानी
सिहरन में
जी जी उठी
मर मर उठी

10 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ..बहुत खूबसूरत क्षणिकाएँ ... बहुत दिन बाद कुछ लिखा है ...

    जवाब देंहटाएं
  2. जानी पहचानी सिहरन, सुन्दर प्रयोग।

    जवाब देंहटाएं
  3. 'जानी पहचानी सिहरन'....!!!!!!!!! गज़ब !!!

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूबसूरत क्षणिकाएँ ,सुंदर भावाव्यक्ति .....

    जवाब देंहटाएं
  5. मै चाहती हूँ मरुस्थल बन के
    तुम्हारा सारा दुःख पी जाऊ
    और तुम्हे खबर भी न हों
    मगर तुम बिन बरसे बदल की तरहां
    मुंह चिढाते उपर से गुज़र जाते हो
    ये तुम क्यूँ कर ऐसा कर जाते हों

    Very touching lines...

    .

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत खूबसूरत क्षणिकाएँ...दिल को गहराई से छू लेने वाली प्रस्तुति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

    जवाब देंहटाएं
  7. bahut khoobsoorat panktiyan hain .. raj har bhaaw man ko chhookar gaya .. badhaayi..

    जवाब देंहटाएं
  8. उसी को देखकर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले ! क्या करें जिन्दगी ही कुछ ऐसी है ! सुंदर बयान है !दिल धडकते रहिये !

    जवाब देंहटाएं