रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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शनिवार, 31 अगस्त 2013

गुरुवार, 7 मार्च 2013

महिला दिवस पर एक बेजुबान सवाल 

इस पृथ्वी पर नितांत असुरक्षित 
मै एक अजन्मा मादा स्वर हूँ
जो इस पशोपश में हूँ 
कि कौन सी मृत्यु 
मुझे प्राप्त होने वाली है 
तीन पांच या सात माह वाली 
भ्रूण हत्या 
या फिर 
तीन पांच या सात साल में
बलात्कार के बाद की गई
गला घोंट कर पाशविक हत्या

रविवार, 7 अगस्त 2011

प्यार तो प्यार है
बस उसकी शक्ल बदल गई है

देखो मै तुम्हारे लिए
टूथपिक लाया हूँ
तुम्हारी पसंद के बिस्कुट और नमकीन लाया हूँ
पेपर नैपकीन और अलुमूनियम फायल भी लाया हूँ
जो तुम अक्सर भूल जाती हों

हाँ , पहले तुम दोने में गर्म गर्म जलेबी लातेथे
कुछ मैगजीन भी लाते थे
फिल्म की दो टिकटें भी लाते थे

बावजूद इसके मै जानती हूँ
तुम्हारा प्यार नही बदला
तुम आज भी वैसे ही हों
जैसे तब थे

यू आर माई बेस्ट फ्रैंड

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

उलाहना




एक

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मै चाहती हूँ मरुस्थल बन के
तुम्हारा सारा दुःख पी जाऊ
और तुम्हे खबर भी हों
मगर तुम बिन बरसे बदल की तरहां
मुंह चिढाते उपर से गुज़र जाते हो
ये तुम क्यूँ कर ऐसा कर जाते हों


दो
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तुम आज फिर मुझे
परिंदे सा छू कर चले गये
मै आज फिर उसी
जानी पहचानी
सिहरन में
जी जी उठी
मर मर उठी

शुक्रवार, 10 जून 2011

हुसैन --श्रद्धांजलि


भावनाओं की जो अकूत सम्पदा 
उकेर गये हो कैनवास पर 
हे चित्रकार ! 
कौन कहता है तुम विलुप्त हो गए हो 
परिदृश्य से | 

तुम अपने सुकर्म से सकर्म
उपस्थित हो 
यहीं हो , यहीं कहीं हो | 

तुम्हारी अँगुलियों ने उकेरीं है जो 
 लाल , पीली , नीली , हरी लकीरें 
पूरी शिद्दत से अपने होने का 
दम भरती रहेंगी ताउम्र   
ये बात अलग है 
कि उन्हें तराशने वालेतुम्हारे  हाथ
 अब कभी न थिरकेंगे | 

न मिले , कोई गिला नही इन लकीरों को 
अर्थ युक्त भरपूर जिन्दगी जी है इन्होंने तुम्हारे साथ | 

आने वाले वक्त में 
ये लकीरें रहबर बनेंगीं 
तराशेंगी और अंगुलियाँ और वजूद | 
बिना वक्त की बंदिश के 
देखना पनपेगा फिर इक पेड़  तुम्हारी तरहां 
कि साये की मौत कभी नही होती | 

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

सच

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दूसरों के सुख के लिए अपनाये गये दुःख में 
एक नैसर्गिक सुख छिपा होता है | 
इस अपनाये गये दुःख को 
बर्दाश्त करने के लिए 
ईश्वरीय सत्ता को हर पल 
साक्षी बनाये रखना पड़ता है ,
उस सत्ता से सम्वाद स्थापित करना होता है ,
ईमानदार होना पड़ता है | 
अपने परिस्थितिजन्य कृत्य की पवित्रता और
सम्वेदनशीलता को बनाये रखना होता है | 
इन सबके उपर समय पर 
भरोसा करना पड़ता है और उसमे 
आत्मा की गहराई  तक 
आस्था का पुट मिलाना होता है | 
पृथ्वी और माँ से ज्यादा 
भला इस सच को और कौन महसूस कर सकता है 
जो अपने जीवन का अधिकांश 
इस सच के साथ गुजरती है कि  
 दूसरों के सुख के लिए अपनाये गये दुःख में 
एक नैसर्गिक सुख छिपा होता है | 

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

परवरिश


औरत एक तवा है | अपनी पीठ को तेज आंच से जलाती है और दूसरी तरफ अपने पेट पर  छोटी छोटी , गोल गोल , सफेद सफेद रोटियां सेकती है | ये आंच जब जरूरत से कहीं ज्यादा हों जाती है तो रोटी से भाप की शक्ल मै निकल कर उस तवे के जिस्म को ही जला देती है | आंच का सही तापमान बहुत जरूरी है इससे न तवा जलेगा और ना रोटी | इसमें चिमटे की भूमिका को भी नजरंदाज नही किया जा सकता है | तवे की पीठ तो जल ही रही है पेट ना भाप से जले इसके लिए रोटी को उलटना पलटना जरूरी होता है उसके कच्चेपन को धीमे धीमे सेकना पड़ता है तभी ये रोटियां अपने पूरे सौन्दर्य और पौष्टिकता के साथ पवित्र आहार  बनती है , अपनी अस्मिता ग्रहण करती है | तवे और चिमटे दोनों की जिम्मेदारी होती है कि वो रोटी को भोज्य बनाये ना कि भोग्य |