रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

हमारी तुम्हारी बातें

सूरज से ज़रा दूर
 खुले आसमाँ की चमक के मानिंद 
तुम्हारा ये साफ साफ सा चेहरा 
मेरे तमाम हौसलों को 
और बढ़ाता गया है | 
मेरी शरारतन ओढ़ी ख़ामोशी को 
तुम्हारी पैनी निगाहें 
ज्यादा देर तक टिकने नही देती 
और फिर मै वही हो जाती हूँ, जो हूँ मै | 
ऐसा भी होता है कभी ------
नामालूम कई गलियों में भटक जाती हूँ मै 
नामालूम कई दरीचों में अटक जाती हूँ मै 
नामालूम कई पहाड़ों से लुढक जाती हूँ मै 
नामालूम कई गर्तों में गिर गिर जाती हूँ मै 
और कभी कभी
 नामालूम  कई रेशों में उलझ उलझ जाती हूँ  मै | 
अचानक तुम आकर ,
मेरी बाहें थाम कर, 
अपनी सुलझी हुई बातों से 
मुझे रस्ते पे ले आते हो, 
ये तुम क्यूँ कर ऐसा कर ले जाते हो | 
एक और अजीब बात है हम में और तुम में | 
तुम चाहते हो मै माँ की तरह सहेज कर रखूं तुम्हे ,
सिर पे हाथ फेरूँ , प्यार से खिलाऊ खाना ,
अगर परेशान हो तो , खुद ब खुद जान जाऊ क्या है बात | 
और मै फिर पूरी करती हूँ कोशिश 
खुद में बहुत बड़ी बड़ी सी हो जाती हूँ |
और जानते हो?
 कभी  कभी होता है ऐसा भी 
कि तुम्हारे सीने में छुप कर अपने वजूद को 
चूजा सा बना लेती हूँ मै | 
हम तुम ऐसे क्यों है ? 
कौन सी कशिश बाँधती है हमे तुम्हे ? 
 आओ इस कशिश पर कुछ और रंग चढ़ाएं 
रोज की  तरहां चलो थोड़ी देर 
बाहर घूम आयें  |