रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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गुरुवार, 20 मई 2010

हादसों के परिप्रेक्ष्य में


कोई नदी नही बुलाती है,कोई पटरियां नही पुकारती है , ना कोई जहर आवाज देता है और ना ही कोई रस्सी अपनी ओर खीचतीहै फिर भी जब दिल टूटता है तो हादसे होते  है और इसके सबसे ज्यादा शिकार मासूम बच्चे होते है . इन मासूमों की  मानसिक तकलीफ कोअगर सचमुच दिल से महसूस करना है तो उसका एक ही जरिया है और वह है अभिभावकों का अपने भीतर  झाँकना.यानि हम उसे कैसा महौल दे रहें है और हम से कहाँ  चूक हो रही है .बजाय इसके कि एक दूसरे पर हम दोषारोपण करें  इससे परे हट कर शुरू की  जाये एक इमानदार कोशिश तो इस समस्या का समाधान कम से कम कुछ हद तक तो निश्चित ही 
सम्भव है 
जुबान की मार  भीतर तक तोड़ देती है इस बात को हर इन्सान को हर  परिप्रेक्ष्य में ध्यान में रखना चाहिए खास कर तब जब कच्ची मिट्टी का मन आहत हो . सफलता किसे अच्छी नही लगती है, असफल होना भला कौन चाहता है लेकिन यही वो जगह है जहाँ सही ढंग से अहसास करना समाज की एक नैतिक जिम्मेदारी है .
अभिभावक बच्चो को समय दें , उन्हें ये एहसास कराएँ की अनगिनत के इस जंगल में तुम अमूल्य हो तुम्हारा होना एक सुखद एहसास है,कोई तुम्हारी जगह नही हो सकता है . ये एक ऐसी भावना है जो बच्चों केदिल के तार को माँ के आंचल और पिता की ऊँगली से कस के जोडती है,सुरक्षा का एहसास कराती है . 
गुरुजनों से नम्र निवेदन हैकि विद्यालयों में ऐसा मौहौल बना कर रखें  जिससे अन्य बच्चे अंकों के आधार पर सफल हुए साथियों को प्रेरक की श्रेणी में रखें . उनके समीप जाने की झिझक खत्म हो .उनके जैसा बनने की चाह जगे . अलख जगना बहुत जरूरी है . उसे दंडित कर के ,आहत कर के ,शर्मिंदा कर के हम उनमे ये अलख नही जगा सकते है .उनके बिखरे हुए आत्मविश्वास को दोनों पक्ष मिल कर ही खड़ा कर सकते है 
इन रेल की पटरियों को ,रस्सी के फंदों को ,जानलेवा गोलियों को ,नहर और नदियों की गहराइयों को हराना जरूरी है अगर हम इमानदारी से अपने  कर्तव्य  का निर्वाह करें तो ये काले साये किसी का कुछ नही बिगाड़ सकते 
इन सबके उपर मै अपने नन्हे दोस्तों से भी ये कहना चाहती हूँ की जितना वे अपने लिए सर्वोत्तम कर सकते है,यदि उसे पूरी इमानदारी से , लगन से अभ्यास करें बारबार करे ,कई  बार करें तो यकीनन बेहद सफल शख्सियत के मालिक हो सकते है 
नदी कई गहराई में आंसू है समन्दर क़ी  गहराई में .मोती है . बैठ के सोचो धैर्य से सोचो , बारबार सोचो कि हमें कौन सी गहराई में उतरना हैऔर क्या पाना है .
अप्रैल से जून तक के बीच हर साल न जाने कितने घरों में कभी न खत्म होने वाला सन्नाटा पसर जाता है,दुःख पहाड़ हो जाता है,आंसू दरिया कि शक्ल अख्तियार कर लेते है .अब बस करो .एक अच्छा इंसान बना दो ,जन्म लेने का ऋण उतर जायेगा .