प्यार तो प्यार है
बस उसकी शक्ल बदल गई है
देखो मै तुम्हारे लिए
टूथपिक लाया हूँ
तुम्हारी पसंद के बिस्कुट और नमकीन लाया हूँ
पेपर नैपकीन और अलुमूनियम फायल भी लाया हूँ
जो तुम अक्सर भूल जाती हों
हाँ , पहले तुम दोने में गर्म गर्म जलेबी लातेथे
कुछ मैगजीन भी लाते थे
फिल्म की दो टिकटें भी लाते थे
बावजूद इसके मै जानती हूँ
तुम्हारा प्यार नही बदला
तुम आज भी वैसे ही हों
जैसे तब थे
यू आर माई बेस्ट फ्रैंड
रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |
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रविवार, 7 अगस्त 2011
मंगलवार, 2 अगस्त 2011
उलाहना
एक
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मै चाहती हूँ मरुस्थल बन के
तुम्हारा सारा दुःख पी जाऊ
और तुम्हे खबर भी न हों
मगर तुम बिन बरसे बदल की तरहां
मुंह चिढाते उपर से गुज़र जाते हो
ये तुम क्यूँ कर ऐसा कर जाते हों
दो
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तुम आज फिर मुझे
परिंदे सा छू कर चले गये
मै आज फिर उसी
जानी पहचानी
सिहरन में
जी जी उठी
मर मर उठी
शुक्रवार, 10 जून 2011
हुसैन --श्रद्धांजलि
भावनाओं की जो अकूत सम्पदा
उकेर गये हो कैनवास पर
हे चित्रकार !
कौन कहता है तुम विलुप्त हो गए हो
परिदृश्य से |
तुम अपने सुकर्म से सकर्म
उपस्थित हो
यहीं हो , यहीं कहीं हो |
तुम्हारी अँगुलियों ने उकेरीं है जो
लाल , पीली , नीली , हरी लकीरें
पूरी शिद्दत से अपने होने का
दम भरती रहेंगी ताउम्र
ये बात अलग है
कि उन्हें तराशने वालेतुम्हारे हाथ
अब कभी न थिरकेंगे |
न मिले , कोई गिला नही इन लकीरों को
अर्थ युक्त भरपूर जिन्दगी जी है इन्होंने तुम्हारे साथ |
आने वाले वक्त में
ये लकीरें रहबर बनेंगीं
तराशेंगी और अंगुलियाँ और वजूद |
बिना वक्त की बंदिश के
देखना पनपेगा फिर इक पेड़ तुम्हारी तरहां
कि साये की मौत कभी नही होती |
शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011
सच
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दूसरों के सुख के लिए अपनाये गये दुःख में
एक नैसर्गिक सुख छिपा होता है |
इस अपनाये गये दुःख को
बर्दाश्त करने के लिए
ईश्वरीय सत्ता को हर पल
साक्षी बनाये रखना पड़ता है ,
उस सत्ता से सम्वाद स्थापित करना होता है ,
ईमानदार होना पड़ता है |
अपने परिस्थितिजन्य कृत्य की पवित्रता और
सम्वेदनशीलता को बनाये रखना होता है |
इन सबके उपर समय पर
भरोसा करना पड़ता है और उसमे
आत्मा की गहराई तक
आस्था का पुट मिलाना होता है |
पृथ्वी और माँ से ज्यादा
भला इस सच को और कौन महसूस कर सकता है
जो अपने जीवन का अधिकांश
इस सच के साथ गुजरती है कि
दूसरों के सुख के लिए अपनाये गये दुःख में
एक नैसर्गिक सुख छिपा होता है |
शुक्रवार, 28 जनवरी 2011
परवरिश
औरत एक तवा है | अपनी पीठ को तेज आंच से जलाती है और दूसरी तरफ अपने पेट पर छोटी छोटी , गोल गोल , सफेद सफेद रोटियां सेकती है | ये आंच जब जरूरत से कहीं ज्यादा हों जाती है तो रोटी से भाप की शक्ल मै निकल कर उस तवे के जिस्म को ही जला देती है | आंच का सही तापमान बहुत जरूरी है इससे न तवा जलेगा और ना रोटी | इसमें चिमटे की भूमिका को भी नजरंदाज नही किया जा सकता है | तवे की पीठ तो जल ही रही है पेट ना भाप से जले इसके लिए रोटी को उलटना पलटना जरूरी होता है उसके कच्चेपन को धीमे धीमे सेकना पड़ता है तभी ये रोटियां अपने पूरे सौन्दर्य और पौष्टिकता के साथ पवित्र आहार बनती है , अपनी अस्मिता ग्रहण करती है | तवे और चिमटे दोनों की जिम्मेदारी होती है कि वो रोटी को भोज्य बनाये ना कि भोग्य |
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