रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

यह ब्लॉग खोजें

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल-२

जिस्म तर बतर हैं और शाख है कि टूटती नहीं 
इनकी जकड़न से कुछ तो सीखो जबान पे लड़ने वालो 

मिट्टी,खुश्बू, हवा और पानी कोई फर्क है और कितना 
खून का रंग भी वही है और लाश का वज़न भी उतना 

गेहूं की बालियाँ नहीं पूछतीं रोटी पकेंगी कहाँ  
तो तुम कौन होते हो इसे तोड़ने और बांटने वाले 

सरहद की लड़ाई क्या कम थी कि हम आपस में लड़ने लगे 
दो रोटी हम खाते है दो रोटी तुम भी खाते हो 

इन उलझे हुए धागों को सहजे से खोलो,खोलने वालो
इल्म ना हो और गांठ भी खुल जाये तो कोई बात है

कलम की धार से खून नही बहता पर असर होताहै 
सन चौरासी का क़र्ज़ है,साथ आओ लिखने वालो 

  






ग़ज़ल -1

निभाने के लिए निभाओ तो कोई बात है
हद तक गुज़र जाने के लिए निभाओ तो कोई बात है


एक तरफ पलाश और दूसरी तरफ मोगरे के फूल हैं
चुन के एक अदृश्य माला जो बनाओ तो कोई बात है


मैं  भटकूँ   चाहे जंगल चाहे पर्वत पर्वत
तुम ढूँढ के ले आओ तो कोई बात है


मैं  स्याह थी, स्याह हूँ ,स्याह रहूंगी
तुम उजाला बन छाजाओ तो कोई बात है


मैं  खुद में जागती आँखों का सपना हूँ
एक भरपूर नींद सुला जाओ तो कोई बात है