रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

शिशु विमर्श

पसरे सन्नाटे  को चीरती खाई से निकली वो बिलखती चीख
ये ज़िन्दगी भीख में ना मांगी थी तो दान में क्यूँ दे दी ?


गरेढ़िये  ने ना सुनी होती वो चीख तो चील कौवों की खुराक थी वो
ज़िंदा जिस्म पे एक चीरा लगा के देखो तो ज़रा,कितना दर्द होता है .


तुम्हारे जिस्म का हिस्सा है वो, जान है, रुई सा अहसास है वो
बहुत से संताप हैं ज़िन्दगी में ये ज़िन्दगी भर का संताप क्या ज़रूरी है?


ज़माने से छुपा के उसे कोख का पालना दिया, मगर अब क्या,
वो मिचमिचाती ऑंखें सारी ज़िन्दगी तेरी पीठ पे चस्पा होंगी.


ज़रूर फूट के निकला होगा तुम्हारी छाती में जमा वो ढूध,
लाख पत्थर सा जमाओ मगर ये ममता है, जमती नहीं है.


मूंगफली के दानों पर पसरी पतले छिलके सी नाजुक नन्ही ये जान,
ये कैसे बेशर्म लोग है जो इस एहसास को ही फूँक में उड़ा देते हैं


अंतरंगता की स्वयत्ता को क़बूल करने से पहले,हे देहधारियों !
परिणाम के मूर्तरूप के लिए सिहांसन ना सही आसन तो ज़रूरी है


एक बार कर्ण पैदा हुआ फिर ये ख़ास से आम बात हो गयी,
इसलिए स्त्री विमर्श के साथ साथ चेतो ,अब शिशु विमर्श की बारी है!