रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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मंगलवार, 31 अगस्त 2010

सन्दूकची



जिन्दगी के बहुत सारे फलसफों को 
अंगूठियों की तरह अँगुलियों में पहनती हूँ , 
वक्त बे वक्त उनकी जगहों में रद्दोबदल करती हूँ 
मगर मुझे मनमुआफिक नतीजा नही मिलता | 
इसी जद्दो जहद में मेरी सन्दूकची में 
ढेर सारी अंगूठियाँ पनाह पा गई हैं | 

मेरे जाने के बाद वो सन्दूकची उनकी कब्रगाह बन जाएगी 
यकायक इस ख्याल ने मुझे रुआसा  कर दिया 
और मैंने सारी अंगूठियाँ समन्दर में बहा दीं 
मगर ये क्या ? 
समन्दर के सीने में गोते लगा कर 
वो अंगूठियाँ वापसी लहरों के साथ 
फिर मेरे कदमों को चूमने लगीं | 
मेरी आँखों के कोर भींग गये | 

मैंने एक एक कर चुन कर उन अंगूठियों में लगी 
सुनहरी बालू को पोछा तो देखा , 
कुछ सुनहरे कणों को उन अंगूठियों ने अपना लिया था 
ठीक उसी तरह जिस तरह सन्दूकची ने उन्हें 
और मैंने सन्दूकची को अपना लिया है अब 
ता उम्र के लिए | 

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

सोच की आजादी

कहते है  सोच कीआजादी  होनी चाहिए | मैंने  अपनी पिटारी का ढक्कन खोला तो उसमें बहुत सारे  सोच कुनमुना रहे थे  | मैने  एक एक सोच को धीमे धीमे  बाहर निकाला और उस पर पड़ी धूल को झाड़ने लगी तो देखा कि -
मै गौरैया बनना  चाहती हूँ 
अपने सपनों में उसके पंखों की 
वो ताकत भरना चाहती हूँ 
जो अदृश्य हो जाने की हद तक 
उड़ान भरने में समर्थ है | 


मै वो पत्थर बनना चाहती हूँ 
जो हवा , पानी , आग जैसे सारे 
थपेड़ों को सहने के बाद भी 
अपने अस्तित्व की मजबूती को 
कायम रखना जानते है | 


मै वो दरिया बनना चाहती हूँ 
जो उबड - खाबड़ तमाम रास्तों से 
गुजरने के बाद भी दो पाटों के बीच 
हमेशा एक रिश्ता बनाये रखने में समर्थ है | 


एक मेरी सोच दीवार पर टंगी 
फ्रेम जड़ी वो तस्वीर बनना चाहती है 
जो भूली  बिसरी यादों को हर पल 
ज़ेहन में ताज़ा रख सकने में समर्थ हो  | 


मै वो पगडंडी बनना चाहती हूँ 
जिस पर चल के किसान की घरवाली 
सोंधी सोंधी खुश्बू वाली दो रोटियां 
उसके लिए प्यार से बना के लाती है | 


मै वो जिस्म बनना चाहती हूँ 
जिसकी हर धडकन में कुदरत की 
हर थाप , हर पदचाप पर 
थिरकने का माद्दा हो | 


हाँ ! मै स्वाति - नछत्र की 
वो बूंद बनना चाहती हूँ 
जो आसमाँ से टपक के 
सीप के आगोश में सिमट के 
सच्चे मोती का अस्तित्व पाती है | 


अभी भी खुले आसमाँ के नीचे 
बिछी सर्द सफेद चादर पर 
कई सोच उनींदी अलसाई सी लुढकी पड़ी है 
दरअसल बहुत दिनों बाद इन्हें खुली जगह मिली है | 

बुधवार, 4 अगस्त 2010

महंगाई



उफ़ ! ये महंगाई
एक शाश्वत सच
जिस पर न जाने कितनो के है सिर फूटे
कितनों के है घर टूटे ,
कितने सपनों ने है दम तोडा
कितनों ने है घर छोड़ा
मगर है ये बड़ी बेहया
बिन बुलाये टपक पडती है
खूब छकाती है
खून के  आंसू रुलाती है


बिट्टू ने आ के कहा ' फीस बढ़ गई '
बच्चे के भविष्य का सवाल है ,सरेंडर कर दिया
बीवी ने कहा दूध ' दूध महंगा हो गया ' वो भी जरूरी है
गाड़ी को पेट्रोल चाहिए , बजट बढाइये
काम वाली की सुविधा चाहिए ,एडवांस निकालिए


बहुत तडफा है कलेजा उस पीली कमीज को
जो मॉल के दूसरे फ्लोर पर शीशे के उस पर से मुह चिढाती है
हसरत भरी निगाहों से उसे देखता हूँ फिर मुह फिरा  लेता हूँ


ये महंगाई सीजनल नही ,बारहमासा है
जब जी चाहे ,जहाँ जी चाहे
कुकुरमुत्ते की तरह उग आती है
बजट में पूरी रवानगी के साथ परवान चढ़ जाती है


एक तबका है जो महंगाई का रोना रो - रो कर
अपनी तिजोरी भरता है |
अरे वही ,अपना बालीवुड
अब देखो !
बाप चाल में रहता है
छत से पानी टपकता है
बेटा घर जमाई बनता है
बेटी नौकरी करती है
तमाम तकलीफें सहती है
अंत में समाधान मिल जाता है और
फिल्म का अंत सुखांत हो जाता है |
क्या रियल जिन्दगी में ये सम्भव है ?
अब देखिये फिल्म हिट  क्या सुपर हिट है
और महंगाई है की बाक्स आफिस पर तोडती दम है
देखा ! इस फार्मूले पर पूरा पैसा वसूल है


अजी , सवाल फिर वहीं का वहीं है  एक ओर
जन्म स्थल यानि अस्पतालों का पलंग महंगा हो गया है
तो दूसरी ओर शमशान की लकड़ियों का किराया भी बढ़ गया है
अब जाएँ तो जाएँ कहाँ
समझेगा कौन यहाँ
दर्द भरे दिल की जुबाँ