रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

बाल नव वर्ष और समय के बीच सम्वाद

'' मै समय हूँ |  
मै जब चाहे करवट बदल सकता हूँ ,
स्याह को सफेद और सफेद को स्याह कर सकता हूँ '' | 

बाल नव वर्ष बोला ''तब तो तुम बड़े बलवान हों | 
जो बलवान होता है वो समर्थ होता है , 
मुझे साल भर की खुराक के लिए जो चाहिए वो दोगे ? '' 

समय ने पूछा '' हाँ, हाँ ,क्यों नही | बोलो क्या चाहिए ? '' 

नन्हा नववर्ष बोला ''मै बच्चा हूँ |
  मुझे रक्त , हिंसा , मारकाट वैमनस्य ,पाप ,
, छल प्रपंच , दुष्कर्म वैराग्य नही भाता |  
प्यार चाहिए , दुलार चाहिए
खुराक चाहिए , स्वास्थ्य चाहिए
शिक्षा चाहिए , ज्ञान चाहिए
जल चाहिए , प्रकाश चाहिए
भक्ति चाहिए , शक्ति चाहिए
प्रेम चाहिए , अनुरक्ति चाहिए
राग चाहिए , अनुराग  चाहिए
धैर्य चाहिए , विश्वास चाहिए
शंख चाहिए , नाद चाहिए
ऐ समय ! मुझे प्रसाद चाहिए '' |


समय नेजल्दी से  टोका ---
''रुको , रुको ! नन्हे बाल गोपाल
इतनी लम्बी सूची ?
पिछले साल भी तो सब दिया था '' |


नव वर्ष ने आहत स्वर मै कहा --
''हाँ ! दिया था , मानता हूँ | साथ ही शत्रुता का दंश भी !
जिसके जहर से
कितनी माँओं को निपूती किया
 सधवा को विधवा किया
जान को बेजान किया
आगत को ही अनाथ किया
हाँ , समय ! तुमने  तो शर्म को शर्मिंदा कर दिया '' |


समय ने कानों पे हाथ रख के कहा
'' बस,  बस ! अब सुनने की ताब नहीं |
कोशिश  करूंगा ! पूरी कोशिश करूंगा अब मै
तुम्हे वो सब दूँ जिससे तुम मुझ पर गर्व कर सको |
मेरे साथ मिल कर सहर्ष दो कदम चल सको |
मै आज से बल्कि अभी से प्रयासरत होने जा रहा हूँ |
मेरे लिए दुआ करना |
सुना है , बाल मन की प्रार्थना
परमात्मा जल्दी सुन लेता है '' |
आमीन |

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

शर्म आती है

हम उस समाज मै खड़े हैं जहाँ
एक जिस्म के बहत्तर टुकड़े हुए हैं और
कुछ दिनों बाद हम सब आदतन   गायेंगे हैप्पी न्यू इयर 
तेजाब से चेहरे झुलसाये गये है और
हम सब आदतन  गायेंगे  हैप्पी न्यू इयर  
ब्लेड से गले  रेते  गये है और 
हम सब गायेंगे  हैप्पी न्यू इयर
कार मै रौंदी गई हैं अस्मत और 
हम सब गायेंगे हैप्पी न्यू इयर
पालीथीन मै लटकी ज़िंदा मिली है नन्ही जान और 
हम सब आदतन गायेंगे हैप्पी न्यू इयर 
उनसे पूछो जिनके घरों के है ये हादसे 
वो बतलायेंगे उनके लिए सिसकियों मै डूबा 
कैसा होगा आने वाला ये न्यू इयर 
कौन इनके दर्द को महसूस करेगा इकत्तीस की रात को 
सब जो डूबे होंगे जश्न मै इकत्तीस की रात को . 
सच ! मन बहुत दुखी है और 
ऐसे अमानवीय समाज का हिस्सा होने पर 
खुद पे शर्म आती है |

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

सोच

हम क्योँ नही उबर सके 
अपनी सोच से 
तमाम उम्र गुजर डाली
  इसी सोच में  |
अब तो वक्त भी कह रहा है
तेरी सोच में 
तब्दिली की सख्त जरूरत है |


इस सोच को
यकीन क़ी संकरी  गली बना ,
कोई तो सिरा हासिल होगा |
शर्त है - वो गली संकरी हो 
ना कोई आजूं हो ना  बाजूं हो 
बस तू हो और तेरी जुस्तजू हो |
फिर देख ! 
फिर देख तेरी सोच क्या रंग लाती है ,
नामुमकिन होगा कि
तू वहीं कि वहीं खड़ी रह जाती है |
तुझे खुद ना सुनाई देगी 
दिन 
महीने 
और सालों वाले कैलेंडर की फड फड़ाहट 
क्यों क़ि अपनी रौं में 
बहता हुआ कोई शख्स 
फिर अपने बस में भी नही होता है |

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

खामोश सवाल

 एक ----
वो जो कोई बात 
तेरे दिल से निकले 
और मेरे दिल तक पहुंचे ,
क्षत विक्षत होकर ,
तो दोष किसका ? 
तुमने भेजा लापरवाह होकर
या मैंने लपका बेपरवाह होकर ? 

दो ----
समंदर पर बरखा क़ी बूँद 
और दिल उदास 
तो मन क्या सोचेगा ?

तीन ----
आओ तुम्हे तुम से मिलाएं 
क़ी तुम्हे क्यूँ लगता है 
क़ी तुम गुम हो गई हो ? 

चार ----
बगैर किसी फलसफे के
 तुम्हे 
तुम्हारी जिल्द के साथ 
जो मै पढना चाहूँ 
तो क्या ये मुमकिन है ? 

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

धोखा



मै धागे का एक सिरा पकड़
फिर उस पर चल कर
तुम तक पह्चूं
ये जानने के लिए कि तुम कौन हो
जो मेरे ख्वाबो  में आ कर अदृश्य संदेश भेजते हो ,
स्पर्श को महसूस कराते हो ,
सोंधी खुश्बू वाली रोटी खिलाते हो
 सर्द रातों में लिहाफ उढ़ाते हो ,
गर्म रातों में बेना झुलाते हो |
जब मै धागे के बीचोबीच पहुंची
तो महसूस किया कि
धागा ढीला हो रहा है ,
लपलपा रहा है |
तुम्हारे सिरे से कुछ सरकता हुआ आ रहा है |
अरे !   ये तो अमूर्त धोखा है जो मुझसे टकरा कर ,
मुझे खाई में गिराने को आतुर है |
मैंने उसी क्षण अपने बढ़ते कदम
वापस कर लिए |
धागा फिर तन गया
और वो अमूर्त धोखा
मेरे सिरे पर वर्जित क्षेत्र का बोर्ड देख
अवाक्   वहीं ठहर  गया |
इस तरहां
 मैंने अपने आप को
ख्वाबों में भी
तुम्हारे बुने जाल से मुक्त कर लिया |

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

हमारी तुम्हारी बातें

सूरज से ज़रा दूर
 खुले आसमाँ की चमक के मानिंद 
तुम्हारा ये साफ साफ सा चेहरा 
मेरे तमाम हौसलों को 
और बढ़ाता गया है | 
मेरी शरारतन ओढ़ी ख़ामोशी को 
तुम्हारी पैनी निगाहें 
ज्यादा देर तक टिकने नही देती 
और फिर मै वही हो जाती हूँ, जो हूँ मै | 
ऐसा भी होता है कभी ------
नामालूम कई गलियों में भटक जाती हूँ मै 
नामालूम कई दरीचों में अटक जाती हूँ मै 
नामालूम कई पहाड़ों से लुढक जाती हूँ मै 
नामालूम कई गर्तों में गिर गिर जाती हूँ मै 
और कभी कभी
 नामालूम  कई रेशों में उलझ उलझ जाती हूँ  मै | 
अचानक तुम आकर ,
मेरी बाहें थाम कर, 
अपनी सुलझी हुई बातों से 
मुझे रस्ते पे ले आते हो, 
ये तुम क्यूँ कर ऐसा कर ले जाते हो | 
एक और अजीब बात है हम में और तुम में | 
तुम चाहते हो मै माँ की तरह सहेज कर रखूं तुम्हे ,
सिर पे हाथ फेरूँ , प्यार से खिलाऊ खाना ,
अगर परेशान हो तो , खुद ब खुद जान जाऊ क्या है बात | 
और मै फिर पूरी करती हूँ कोशिश 
खुद में बहुत बड़ी बड़ी सी हो जाती हूँ |
और जानते हो?
 कभी  कभी होता है ऐसा भी 
कि तुम्हारे सीने में छुप कर अपने वजूद को 
चूजा सा बना लेती हूँ मै | 
हम तुम ऐसे क्यों है ? 
कौन सी कशिश बाँधती है हमे तुम्हे ? 
 आओ इस कशिश पर कुछ और रंग चढ़ाएं 
रोज की  तरहां चलो थोड़ी देर 
बाहर घूम आयें  | 

बुधवार, 15 सितंबर 2010

खारिज


मैंने सपने में भी
 दंश को चुभने की इजाजत न दी 
और तुमने मुझे
 सरेराह छलनी कर दिया ,
अब कहते हो , मुझे माफ़ करो | 


सम्बोधन की दुहाई दे कर 
आत्मा को पी जाने वाले 
हे काठ पुरुष  ! 
तुम्हे तरलता , सरलता से क्या सरोकार ? 
तुम्हे तुम्हारी निजता प्यारी है 
फिर ये सेंधमारी क्यों ? 


तुम सूखे हुए, जल का ,एक दाग हो 
जिसे गीले  कपड़े  से पोछ के छुड़ाना है | 
तुम चाहते हो , तुम्हे मेरी अपनी सम्वेदनाओं की तह तक 
पहुचाने के लिए 
मुझे मेरे अपने ही मरुस्थल से गुजरना पड़े | 
ये कैसी शर्त है ? 
जाओ ,चले जाओ | 


  अब मै अपनी छाती में 
बारिश की बूंदें भरुंगी | 
एक महासागर बनाउंगी 
और अपने मरुस्थल में 
एक पौधा भी रोपूंगी
जिसकी छाँव से तुम्हे अभी से वर्जित करती हूँ | 
जाओ जाओ ! 
इसी पल से मै तुम्हे अपने मरुस्थल से मुक्त करती हूँ ,
जाओ ! तुम्हे सिरे से खारिज करती हूँ |  

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

दो टूक बातें ------[निराशा से ]

 एक ----


बेशक मै चौहद्दी की इक ईट हूँ 
मगर बहुत मजबूत हूँ | 
मुझे भेद के घर के आंगन में
तांडव का मन ना बनाओ ,
तुम्हारे हर प्रहार का मुह तोड़ जवाब हूँ
बस ! वहीं  ठहरो , वहीं ठहर जाओ |


दो ---


सुनहरी रेत की तरह
इस पार से उस पार तक
फैली उजली हंसी ने
कमरे में पसरे मौन से पूछा
ये चुप सी क्यों लगी है
अजी ! कुछ तो बोलिए |


तीन ----


ना तुम बुरी हो ना हम बुरे हैं ,
गर हैं  तो ख्यालात बुरे हैं | 
आओ इससे निज़ात पाने की कोशिश करें ,
मै मुतमइन हूँ , सुबह  होगी जरूरहोगी |


चार ----


हाँ ! मुझे उमीदों से मुहब्बत करनी है ,
इस जज़्बे में घुस के मुहब्बत करनी है |
 वो जो कोई बात तेरे लब पे आ के ठहरी है
उसे सरेराह , सरेआम करनी है
ताकि ताकीद रहे  तुम फिर इधर का 
कभी रुख ना करो
हाँ ,  कभी रुख ना करो |




मंगलवार, 31 अगस्त 2010

सन्दूकची



जिन्दगी के बहुत सारे फलसफों को 
अंगूठियों की तरह अँगुलियों में पहनती हूँ , 
वक्त बे वक्त उनकी जगहों में रद्दोबदल करती हूँ 
मगर मुझे मनमुआफिक नतीजा नही मिलता | 
इसी जद्दो जहद में मेरी सन्दूकची में 
ढेर सारी अंगूठियाँ पनाह पा गई हैं | 

मेरे जाने के बाद वो सन्दूकची उनकी कब्रगाह बन जाएगी 
यकायक इस ख्याल ने मुझे रुआसा  कर दिया 
और मैंने सारी अंगूठियाँ समन्दर में बहा दीं 
मगर ये क्या ? 
समन्दर के सीने में गोते लगा कर 
वो अंगूठियाँ वापसी लहरों के साथ 
फिर मेरे कदमों को चूमने लगीं | 
मेरी आँखों के कोर भींग गये | 

मैंने एक एक कर चुन कर उन अंगूठियों में लगी 
सुनहरी बालू को पोछा तो देखा , 
कुछ सुनहरे कणों को उन अंगूठियों ने अपना लिया था 
ठीक उसी तरह जिस तरह सन्दूकची ने उन्हें 
और मैंने सन्दूकची को अपना लिया है अब 
ता उम्र के लिए | 

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

सोच की आजादी

कहते है  सोच कीआजादी  होनी चाहिए | मैंने  अपनी पिटारी का ढक्कन खोला तो उसमें बहुत सारे  सोच कुनमुना रहे थे  | मैने  एक एक सोच को धीमे धीमे  बाहर निकाला और उस पर पड़ी धूल को झाड़ने लगी तो देखा कि -
मै गौरैया बनना  चाहती हूँ 
अपने सपनों में उसके पंखों की 
वो ताकत भरना चाहती हूँ 
जो अदृश्य हो जाने की हद तक 
उड़ान भरने में समर्थ है | 


मै वो पत्थर बनना चाहती हूँ 
जो हवा , पानी , आग जैसे सारे 
थपेड़ों को सहने के बाद भी 
अपने अस्तित्व की मजबूती को 
कायम रखना जानते है | 


मै वो दरिया बनना चाहती हूँ 
जो उबड - खाबड़ तमाम रास्तों से 
गुजरने के बाद भी दो पाटों के बीच 
हमेशा एक रिश्ता बनाये रखने में समर्थ है | 


एक मेरी सोच दीवार पर टंगी 
फ्रेम जड़ी वो तस्वीर बनना चाहती है 
जो भूली  बिसरी यादों को हर पल 
ज़ेहन में ताज़ा रख सकने में समर्थ हो  | 


मै वो पगडंडी बनना चाहती हूँ 
जिस पर चल के किसान की घरवाली 
सोंधी सोंधी खुश्बू वाली दो रोटियां 
उसके लिए प्यार से बना के लाती है | 


मै वो जिस्म बनना चाहती हूँ 
जिसकी हर धडकन में कुदरत की 
हर थाप , हर पदचाप पर 
थिरकने का माद्दा हो | 


हाँ ! मै स्वाति - नछत्र की 
वो बूंद बनना चाहती हूँ 
जो आसमाँ से टपक के 
सीप के आगोश में सिमट के 
सच्चे मोती का अस्तित्व पाती है | 


अभी भी खुले आसमाँ के नीचे 
बिछी सर्द सफेद चादर पर 
कई सोच उनींदी अलसाई सी लुढकी पड़ी है 
दरअसल बहुत दिनों बाद इन्हें खुली जगह मिली है | 

बुधवार, 4 अगस्त 2010

महंगाई



उफ़ ! ये महंगाई
एक शाश्वत सच
जिस पर न जाने कितनो के है सिर फूटे
कितनों के है घर टूटे ,
कितने सपनों ने है दम तोडा
कितनों ने है घर छोड़ा
मगर है ये बड़ी बेहया
बिन बुलाये टपक पडती है
खूब छकाती है
खून के  आंसू रुलाती है


बिट्टू ने आ के कहा ' फीस बढ़ गई '
बच्चे के भविष्य का सवाल है ,सरेंडर कर दिया
बीवी ने कहा दूध ' दूध महंगा हो गया ' वो भी जरूरी है
गाड़ी को पेट्रोल चाहिए , बजट बढाइये
काम वाली की सुविधा चाहिए ,एडवांस निकालिए


बहुत तडफा है कलेजा उस पीली कमीज को
जो मॉल के दूसरे फ्लोर पर शीशे के उस पर से मुह चिढाती है
हसरत भरी निगाहों से उसे देखता हूँ फिर मुह फिरा  लेता हूँ


ये महंगाई सीजनल नही ,बारहमासा है
जब जी चाहे ,जहाँ जी चाहे
कुकुरमुत्ते की तरह उग आती है
बजट में पूरी रवानगी के साथ परवान चढ़ जाती है


एक तबका है जो महंगाई का रोना रो - रो कर
अपनी तिजोरी भरता है |
अरे वही ,अपना बालीवुड
अब देखो !
बाप चाल में रहता है
छत से पानी टपकता है
बेटा घर जमाई बनता है
बेटी नौकरी करती है
तमाम तकलीफें सहती है
अंत में समाधान मिल जाता है और
फिल्म का अंत सुखांत हो जाता है |
क्या रियल जिन्दगी में ये सम्भव है ?
अब देखिये फिल्म हिट  क्या सुपर हिट है
और महंगाई है की बाक्स आफिस पर तोडती दम है
देखा ! इस फार्मूले पर पूरा पैसा वसूल है


अजी , सवाल फिर वहीं का वहीं है  एक ओर
जन्म स्थल यानि अस्पतालों का पलंग महंगा हो गया है
तो दूसरी ओर शमशान की लकड़ियों का किराया भी बढ़ गया है
अब जाएँ तो जाएँ कहाँ
समझेगा कौन यहाँ
दर्द भरे दिल की जुबाँ

सोमवार, 26 जुलाई 2010

माँ



मैंने देखा है उसे 
बार बार 
कई बार
 बहुत बार 
मगर उसकी जगह बदली नही है | 
उसी रेलवे पुल के नीचे 
चिथड़ों में लिपटी 
पीली पीली सूखी निगाहों से 
वह हर आते जाते को तकती है ,
वह अपने गुमशुदा  बच्चे को 
तलाशती है 
उसे जिसे वह बरसों पहले 
इसी भीड़ में खो चुकी  है | 
एक यकीन है उसे कि वह मिल जायगा 
और वह उसे उसी तरह पहचान लेगी  
जिस  तरह वफादार कुत्ता अपने मालिक को 
बरसों बाद पहचान लेता है | 
ये बात मैंने नही खुद उसने कही है 
तब,  जब गिरने से उसके घुटने 
छिल गये थे और वो रो रही थी कि 
''अब मुझे मेरा लाडला मिल जाना चाहिए ''
पर कोई उसका बच्चा बनने को तैयार नही | 
इस सच से नावाकिफ , जबर्दस्त यकीन के साथ 
उसी पुलिया के नीचे 
वह आज भी हर आते जाते को तकती रहती है 
क्यों कि 
वह माँ है | 

शनिवार, 24 जुलाई 2010

जरूरत

जिन्दगी से हमे कितना चाहिए और  क्या  चाहिए
ये इतना मायने नही रखता  जितना की
जिन्दगी से मुझे क्यों  चाहिए और  कैसे चाहिए
ये मायने रखता है |


कितना चाहिए की कोई सीमा नही ,
 क्या चाहिए का कोई अंत नही
क्यों चाहिए में एक वजह है
कैसे चाहिए में एक वजन है |


हम पाते है खुश हो जाते है
रम जाते है थम जाते है
क्यों और कैसे को साथ रखे तो
निष्क्रिय होने से बच जाते है | ,

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

वो मासूम सवाल


चिनार का दरख्त 
मोगरे के फूल 
पारिजात की पंखुडियां
और गुलाब की खुश्बू 
कैक्टस ने पूछा -----
''सब पे तो लिखती हो 
मुझ पे क्यों नही लिखा ?''
और मै उसके मासूम से  सवाल पे 
शर्मिंदा शर्मिंदा हो गई |





मंगलवार, 6 जुलाई 2010

लकड़ी की चौकी


मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ


धूप और बारिश दोनों मेरी हमजोली हैं|


सर्दी की धूप  रंगीन होती है ,खूब हंसी ठिठोली होती है

गर्मी की रात हसीन होती है संदेशों की लुकाछुपी होती है

नवजात शिशु की मालिश  ,उसकी किलकारियों की मै गवाह हूँ

मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ





एक तरफ धूप में अचार और मसालों की सोंधी खुशबु से

मेरा पूरा जिस्म गनगनाता है तो दूसरी तरफ पड़ोसनों की

रस भरी बतकही पे मै मन ही मन मुस्कुराती हूँ

साग का चुनना चावल का बिनना तरकारियों का कतरना

चटनियों की तैयारी इन सबको भी मै खूब पहचानती हूँ

मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ 

पंडित जी का संचित ज्ञान भी अदभुत है

कथा बाचने की कला में वे निपुण है

सुन कर मै मुग्ध हूँ आत्मविभोर हूँ भाग्यशाली हूँ

उनके दलान की मै बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ




कभी पुरुषों के ठहाकों का हिस्सा बनती हूँ

कभी औरतो की गोष्ठियों का रस पीती हूँ

उलाहनों और नाराजगियों को भी देखा है

रूठना और मनाना भी अब जान गयी हूँ

कभी कभी मुझ पे कपड़े है सूखते

वो पानी की नमी मुझे उतना ही देती है सुकून

जितना सर्दियों में बक्से से निकले गर्म कपड़े स्वेटर और शॉल

रजाइयों और कम्बलों की गर्माहट सेंकती है मेरी बूढी हड्डियों को

दिन में कई बार भरपूर नींद भी सो जाती हूँ मै  

 मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की  चौकी   हूँ

बच्चों की धमाचौकड़ी ,छुप्पनछुपाई ,सत्तिल्लो और उंच नीच के खेल के बीच

दादी अम्मा सी हुलस हुलस जाती हूँ

बन्ना बन्नी और सोहर के कई गीत मन ही मन गुनगुनाते हुए

खूब फूलो फलो ,सदा सुहागिन रहो का आशीर्वाद

बहू - बेटियों को दे दे सुख पाती हूँ

मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ  . 

गुरुवार, 10 जून 2010

 अगर इंडिया टी  वी की न्यूज़ बकवास थी तो स्टार न्यूज़ पर गुरुवार १०.६.२०१० दोपहर दो बजे प्रसारित होने वाली न्यूज़ के बारे में  आप की क्या राय है ?

मंगलवार, 1 जून 2010

एक प्रश्न


दिन :सोमवार
समय :सुबह के दस बज के तीस मिनट
इंडिया टी वी पर एक समाचार आ रहा था कि बारह साल के एक बच्चे को चोरी के इल्जाम में पकड़ के उसे एक पुलिस वाले ने खूब पीटा  और उसके ही सामने उसकी माँ को निर्वस्त्र किया  |ये जहर का घूंट नही है तो और क्या है ? क्या ये घटना सिर्फ एक हादसा है ?

रविवार, 30 मई 2010

औरत

औरत को अगर तकलीफ हो
तो पहले बोलती नही थी
आज बोलती है , चीखती है
प्रतिरोध करती है , जवाब भी मांगती है |


ये तो क्रिया प्रतिक्रिया है
लेकिन अगर औरत ने इस
तकलीफ का जहर गटक लिया
और बेपरवाह हो कह उठी
'' शाख से टूट के गिरा तो क्या
पत्ता तो हूँ ना मै
सुपुर्दे खाक हो जाऊं
तो कोई नाम दे देना ''


तो ये स्थिति बड़ी विस्फोटक होगी
सृष्टि के नियम तक पे रखे रह जायेंगे
संतुलन असंतुलित हो जायेगा |


औरत का बेपरवाह हो जाना
समाज रूपी इमारत का
भरभरा कर ढह जाना है
मजबूत से मजबूत नीव भी
मूकदर्शक बन रह जाएगी |


विश्वकल्याण के लिए आह्वाहन है
''औरत को बेपरवाह ना बनने दो
उसे उसकी अस्मिता के साथ हक
ईमानदारी और इज्जत से जीने दो ''


ये अल्फाज कोई  भीख नही है
ताकीद है उन लोगों के लिए खासकर ,
जो सामाजिक समीकरण को
अपनी बपौती समझते है |


ख्याल रहे
दर्द बर्दाश्त की हद के बाद
दर्द नही रह जाता
वो हिस्सा सुन्न हो जाता है
उस पे किसी का असर नही होता |

गुरुवार, 27 मई 2010

सच


सख्त हथेली पे कुदरत की दो चीर है  


इक  जिन्दगी की है इक मौत की है ,


मैंने जिन्दगी की चीर को कलम से गहरा रंग दिया 


मौत ने हँस के कहा , तेरी स्याही फीकी है |

शनिवार, 22 मई 2010

हाँ ऐसा भी हुआ है


जब कोई दरख्त पत्तों से किनाराकशी करे 
तो पतझड़ है ऐसा बताते हो तुम 
पर वक्त ही जब बेवक्त झिडक दे 
 तो उसे क्या नाम देते हो तुम  ? 

समन्दर की मौजें चीख के कहती है ,
रहने दो अब ना सताओ उसे |
आसमाँ उसकी बेबसी पे 
चंद कतरे आसूं के बहा सके 
ऐसा भी तो नही , शायद बेबस है |

इस खूबसूरत समाज में  देखो ना 
क्या औकात है दरम्याने इन्सान की ,
आज की साँस भी उधर लिए बैठा है |
कल की खुराक का क्या आलम होगा 
ये सोच सोच के अपनी रात काटता है |

कुछ ना मिले तो अपने जिस्म का लहू बेचो 
उस पर तो हक अपना है , वो तो बेवफा नहीं?
चार पल की खोखली जिन्दगी 
दो पल में सिमट आये , हाँ ऐसा भी हुआ है |

गुरुवार, 20 मई 2010

हादसों के परिप्रेक्ष्य में


कोई नदी नही बुलाती है,कोई पटरियां नही पुकारती है , ना कोई जहर आवाज देता है और ना ही कोई रस्सी अपनी ओर खीचतीहै फिर भी जब दिल टूटता है तो हादसे होते  है और इसके सबसे ज्यादा शिकार मासूम बच्चे होते है . इन मासूमों की  मानसिक तकलीफ कोअगर सचमुच दिल से महसूस करना है तो उसका एक ही जरिया है और वह है अभिभावकों का अपने भीतर  झाँकना.यानि हम उसे कैसा महौल दे रहें है और हम से कहाँ  चूक हो रही है .बजाय इसके कि एक दूसरे पर हम दोषारोपण करें  इससे परे हट कर शुरू की  जाये एक इमानदार कोशिश तो इस समस्या का समाधान कम से कम कुछ हद तक तो निश्चित ही 
सम्भव है 
जुबान की मार  भीतर तक तोड़ देती है इस बात को हर इन्सान को हर  परिप्रेक्ष्य में ध्यान में रखना चाहिए खास कर तब जब कच्ची मिट्टी का मन आहत हो . सफलता किसे अच्छी नही लगती है, असफल होना भला कौन चाहता है लेकिन यही वो जगह है जहाँ सही ढंग से अहसास करना समाज की एक नैतिक जिम्मेदारी है .
अभिभावक बच्चो को समय दें , उन्हें ये एहसास कराएँ की अनगिनत के इस जंगल में तुम अमूल्य हो तुम्हारा होना एक सुखद एहसास है,कोई तुम्हारी जगह नही हो सकता है . ये एक ऐसी भावना है जो बच्चों केदिल के तार को माँ के आंचल और पिता की ऊँगली से कस के जोडती है,सुरक्षा का एहसास कराती है . 
गुरुजनों से नम्र निवेदन हैकि विद्यालयों में ऐसा मौहौल बना कर रखें  जिससे अन्य बच्चे अंकों के आधार पर सफल हुए साथियों को प्रेरक की श्रेणी में रखें . उनके समीप जाने की झिझक खत्म हो .उनके जैसा बनने की चाह जगे . अलख जगना बहुत जरूरी है . उसे दंडित कर के ,आहत कर के ,शर्मिंदा कर के हम उनमे ये अलख नही जगा सकते है .उनके बिखरे हुए आत्मविश्वास को दोनों पक्ष मिल कर ही खड़ा कर सकते है 
इन रेल की पटरियों को ,रस्सी के फंदों को ,जानलेवा गोलियों को ,नहर और नदियों की गहराइयों को हराना जरूरी है अगर हम इमानदारी से अपने  कर्तव्य  का निर्वाह करें तो ये काले साये किसी का कुछ नही बिगाड़ सकते 
इन सबके उपर मै अपने नन्हे दोस्तों से भी ये कहना चाहती हूँ की जितना वे अपने लिए सर्वोत्तम कर सकते है,यदि उसे पूरी इमानदारी से , लगन से अभ्यास करें बारबार करे ,कई  बार करें तो यकीनन बेहद सफल शख्सियत के मालिक हो सकते है 
नदी कई गहराई में आंसू है समन्दर क़ी  गहराई में .मोती है . बैठ के सोचो धैर्य से सोचो , बारबार सोचो कि हमें कौन सी गहराई में उतरना हैऔर क्या पाना है .
अप्रैल से जून तक के बीच हर साल न जाने कितने घरों में कभी न खत्म होने वाला सन्नाटा पसर जाता है,दुःख पहाड़ हो जाता है,आंसू दरिया कि शक्ल अख्तियार कर लेते है .अब बस करो .एक अच्छा इंसान बना दो ,जन्म लेने का ऋण उतर जायेगा .

मंगलवार, 18 मई 2010

क्या पानी टूटता है ?


उम्र के दरिया में 
वक्त ने 
पानी की दीवार की तरह 
एक ऐसी ऊँची दीवार खड़ी की है 
जिसके इस ओर तो 
अपनी शक्ल दिखती है 
पर उस ओर 
कुछ बेहद अपना रह गया है .


पत्थर से पानी को  मारना  
कितना बेमानी लगता  है 
यकीनन मेरी ये कोशिश 
बिना हश्र के होगी 
सिर्फ और सिर्फ उसकी लहरें 
मेरे मजाक़ बन जाने की गवाह होंगी .  
      क्या मालूम कि
उस दीवार के पीछे 
कोई रहम का बंजारा ठहरा हो 
ये देखने की  कोशिश फिर 
पानी की  दीवार को 
पत्थर से तोड़ने कि तरह है .


क्या पानी टूटता है ? 

बुधवार, 12 मई 2010

आपस क़ी बातें

  '' मम्मा ,ये क्या लिख रही है आप ब्लॉग पर ?
''  मैंने रोटी बेलते हुए सहज स्वर में पूछा ''क्यों ,क्या लिखा है ? '' 
"मम्मा जो आपका लेटेस्ट ब्लॉग है ''क्या हुआ जो सड़के नप  गई 
तुम्हारे कदमो से
एक फासला था तय हो गया ख्वाबों में ही सही ''
"अच्छा  वो ,क्यों क्या हुआ पसंद नही आया ?''   
आपको पता है  मम्मा मेरी सब फ्रेंड्स आप की फैन है '' 
 ''तो ?''
 '' तो क्या मम्मा ,वो सब हँस रही थी कि काफी रोमेंटिक लाइने लिखी है आंटी ने ''
"सो तो है ''
"मम्मा  प्लीज ''
मैंने गैस बंद क़ी,मुस्कुराते हुए उसके कंधे पे हाथ रख के पूछा ''क्या खुद से मुखातिब होने के लिए भी मुझे माँ और बीवी 
बनना पड़ेगा ?''
''आइ ऍम सौरी मम्मा  ''और वो मेरे गले में बाहें डाल झूल गई .

मोर का पंख



तुम्हे किताबों की शक्ल में पढ़ते पढ़ते 
न जाने कब मै उसमे रक्खा 
मोर का पंख हो गई
ये क्या गजब 
बात हो गई.

सोमवार, 10 मई 2010

कदम

 
क्या हुआ जो सडकें नप गईं
तुम्हारे कदमों से .
एक फासला था , तय हो गया 
ख्वाबों में ही सही .

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

एक अदद ख्वाहिश

प्रश्नचिन्हों से परे भी कोई वजूद होता है ?
तीन तीन पीढियां ग़ुजर जाती है वही शाश्वत प्राचीनतम रोजगार करते हुए .
हाँ ,वो एक बाजारू औरत है .
हजारों उपलब्धियों की हकदार , अपने आप में खास ,ये औरत तमाम आयामों से गुजरते हुए आज ठिठक कर खड़ी हुई तो समाज में कोहराम मच गया .वो सबकी निगाहों में आ गई .हर रोज जो सबकी  निगाहों से गुजरती थी आज एक लहुलुहान सवाल बन गई .
औलाद की कशिश उसके सीने में मानो जमा हुआ दूध थी .वो अपने लिए कुछ सुख के पल चाहती है .छाती की जकडन से मुक्त होना चाहती है .दूध का सोता बहाना चाहती है .नन्ही नन्ही मुट्ठी में अपनी तर्जनी को बार बार ,हजार बार कैद करवाना चाहती है  लिजलिजी ,नर्म ,गुलाबी पेशानी पे पसीने से चिपके बालों को आहिस्ता से हटाना चाहती है .वो एक नन्ही जान ,एक बच्ची गोद लेकर माँ की तरह उसकी परवरिश कर अपने हिस्से की माँ बनना चाहती है मगर उसकी नीयत पे सबको शक है .
शक भी कितना घिनौना है कि ये औरत एक बच्ची को गोद लेकर अपना बुढ़ापा सवारना चाहती है .
उफ ..... माँ के इस पाकसाफ जज्बात को बदनाम ना करो .वो बच्ची यतीम है उसे यतीम ही रहने दो ये बगैरत दुनिया उसका आंचल भी महफूज न रहने देगी .
बंजर धरती में उगी इस ख्वाहिश की नर्म कोपल को वही दफ़न कर दो .इस ख्वाहिश पर इस औरत का कोई हक नही .रिश्तों से
परे वो सिर्फ मादा है जो अपने नमकीन आसुओं को सदियों से पीती चली आ रही है