जिन्दगी के बहुत सारे फलसफों को
अंगूठियों की तरह अँगुलियों में पहनती हूँ ,
वक्त बे वक्त उनकी जगहों में रद्दोबदल करती हूँ
मगर मुझे मनमुआफिक नतीजा नही मिलता |
इसी जद्दो जहद में मेरी सन्दूकची में
ढेर सारी अंगूठियाँ पनाह पा गई हैं |
मेरे जाने के बाद वो सन्दूकची उनकी कब्रगाह बन जाएगी
यकायक इस ख्याल ने मुझे रुआसा कर दिया
और मैंने सारी अंगूठियाँ समन्दर में बहा दीं
मगर ये क्या ?
समन्दर के सीने में गोते लगा कर
वो अंगूठियाँ वापसी लहरों के साथ
फिर मेरे कदमों को चूमने लगीं |
मेरी आँखों के कोर भींग गये |
मैंने एक एक कर चुन कर उन अंगूठियों में लगी
सुनहरी बालू को पोछा तो देखा ,
कुछ सुनहरे कणों को उन अंगूठियों ने अपना लिया था
ठीक उसी तरह जिस तरह सन्दूकची ने उन्हें
और मैंने सन्दूकची को अपना लिया है अब
ता उम्र के लिए |