रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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मंगलवार, 31 अगस्त 2010

सन्दूकची



जिन्दगी के बहुत सारे फलसफों को 
अंगूठियों की तरह अँगुलियों में पहनती हूँ , 
वक्त बे वक्त उनकी जगहों में रद्दोबदल करती हूँ 
मगर मुझे मनमुआफिक नतीजा नही मिलता | 
इसी जद्दो जहद में मेरी सन्दूकची में 
ढेर सारी अंगूठियाँ पनाह पा गई हैं | 

मेरे जाने के बाद वो सन्दूकची उनकी कब्रगाह बन जाएगी 
यकायक इस ख्याल ने मुझे रुआसा  कर दिया 
और मैंने सारी अंगूठियाँ समन्दर में बहा दीं 
मगर ये क्या ? 
समन्दर के सीने में गोते लगा कर 
वो अंगूठियाँ वापसी लहरों के साथ 
फिर मेरे कदमों को चूमने लगीं | 
मेरी आँखों के कोर भींग गये | 

मैंने एक एक कर चुन कर उन अंगूठियों में लगी 
सुनहरी बालू को पोछा तो देखा , 
कुछ सुनहरे कणों को उन अंगूठियों ने अपना लिया था 
ठीक उसी तरह जिस तरह सन्दूकची ने उन्हें 
और मैंने सन्दूकची को अपना लिया है अब 
ता उम्र के लिए |