रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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गुरुवार, 9 सितंबर 2010

दो टूक बातें ------[निराशा से ]

 एक ----


बेशक मै चौहद्दी की इक ईट हूँ 
मगर बहुत मजबूत हूँ | 
मुझे भेद के घर के आंगन में
तांडव का मन ना बनाओ ,
तुम्हारे हर प्रहार का मुह तोड़ जवाब हूँ
बस ! वहीं  ठहरो , वहीं ठहर जाओ |


दो ---


सुनहरी रेत की तरह
इस पार से उस पार तक
फैली उजली हंसी ने
कमरे में पसरे मौन से पूछा
ये चुप सी क्यों लगी है
अजी ! कुछ तो बोलिए |


तीन ----


ना तुम बुरी हो ना हम बुरे हैं ,
गर हैं  तो ख्यालात बुरे हैं | 
आओ इससे निज़ात पाने की कोशिश करें ,
मै मुतमइन हूँ , सुबह  होगी जरूरहोगी |


चार ----


हाँ ! मुझे उमीदों से मुहब्बत करनी है ,
इस जज़्बे में घुस के मुहब्बत करनी है |
 वो जो कोई बात तेरे लब पे आ के ठहरी है
उसे सरेराह , सरेआम करनी है
ताकि ताकीद रहे  तुम फिर इधर का 
कभी रुख ना करो
हाँ ,  कभी रुख ना करो |