रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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रविवार, 30 मई 2010

औरत

औरत को अगर तकलीफ हो
तो पहले बोलती नही थी
आज बोलती है , चीखती है
प्रतिरोध करती है , जवाब भी मांगती है |


ये तो क्रिया प्रतिक्रिया है
लेकिन अगर औरत ने इस
तकलीफ का जहर गटक लिया
और बेपरवाह हो कह उठी
'' शाख से टूट के गिरा तो क्या
पत्ता तो हूँ ना मै
सुपुर्दे खाक हो जाऊं
तो कोई नाम दे देना ''


तो ये स्थिति बड़ी विस्फोटक होगी
सृष्टि के नियम तक पे रखे रह जायेंगे
संतुलन असंतुलित हो जायेगा |


औरत का बेपरवाह हो जाना
समाज रूपी इमारत का
भरभरा कर ढह जाना है
मजबूत से मजबूत नीव भी
मूकदर्शक बन रह जाएगी |


विश्वकल्याण के लिए आह्वाहन है
''औरत को बेपरवाह ना बनने दो
उसे उसकी अस्मिता के साथ हक
ईमानदारी और इज्जत से जीने दो ''


ये अल्फाज कोई  भीख नही है
ताकीद है उन लोगों के लिए खासकर ,
जो सामाजिक समीकरण को
अपनी बपौती समझते है |


ख्याल रहे
दर्द बर्दाश्त की हद के बाद
दर्द नही रह जाता
वो हिस्सा सुन्न हो जाता है
उस पे किसी का असर नही होता |