हम क्योँ नही उबर सके
अपनी सोच से
तमाम उम्र गुजर डाली
इसी सोच में |
अब तो वक्त भी कह रहा है
तेरी सोच में
तब्दिली की सख्त जरूरत है |
इस सोच को
यकीन क़ी संकरी गली बना ,
कोई तो सिरा हासिल होगा |
शर्त है - वो गली संकरी हो
ना कोई आजूं हो ना बाजूं हो
बस तू हो और तेरी जुस्तजू हो |
फिर देख !
फिर देख तेरी सोच क्या रंग लाती है ,
नामुमकिन होगा कि
तू वहीं कि वहीं खड़ी रह जाती है |
तुझे खुद ना सुनाई देगी
दिन
महीने
और सालों वाले कैलेंडर की फड फड़ाहट
क्यों क़ि अपनी रौं में
बहता हुआ कोई शख्स
फिर अपने बस में भी नही होता है |