कहते है सोच कीआजादी होनी चाहिए | मैंने अपनी पिटारी का ढक्कन खोला तो उसमें बहुत सारे सोच कुनमुना रहे थे | मैने एक एक सोच को धीमे धीमे बाहर निकाला और उस पर पड़ी धूल को झाड़ने लगी तो देखा कि -
मै गौरैया बनना चाहती हूँ
अपने सपनों में उसके पंखों की
वो ताकत भरना चाहती हूँ
जो अदृश्य हो जाने की हद तक
उड़ान भरने में समर्थ है |
मै वो पत्थर बनना चाहती हूँ
जो हवा , पानी , आग जैसे सारे
थपेड़ों को सहने के बाद भी
अपने अस्तित्व की मजबूती को
कायम रखना जानते है |
मै वो दरिया बनना चाहती हूँ
जो उबड - खाबड़ तमाम रास्तों से
गुजरने के बाद भी दो पाटों के बीच
हमेशा एक रिश्ता बनाये रखने में समर्थ है |
एक मेरी सोच दीवार पर टंगी
फ्रेम जड़ी वो तस्वीर बनना चाहती है
जो भूली बिसरी यादों को हर पल
ज़ेहन में ताज़ा रख सकने में समर्थ हो |
मै वो पगडंडी बनना चाहती हूँ
जिस पर चल के किसान की घरवाली
सोंधी सोंधी खुश्बू वाली दो रोटियां
उसके लिए प्यार से बना के लाती है |
मै वो जिस्म बनना चाहती हूँ
जिसकी हर धडकन में कुदरत की
हर थाप , हर पदचाप पर
थिरकने का माद्दा हो |
हाँ ! मै स्वाति - नछत्र की
वो बूंद बनना चाहती हूँ
जो आसमाँ से टपक के
सीप के आगोश में सिमट के
सच्चे मोती का अस्तित्व पाती है |
अभी भी खुले आसमाँ के नीचे
बिछी सर्द सफेद चादर पर
कई सोच उनींदी अलसाई सी लुढकी पड़ी है
दरअसल बहुत दिनों बाद इन्हें खुली जगह मिली है |