रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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मंगलवार, 2 अगस्त 2011

उलाहना




एक

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मै चाहती हूँ मरुस्थल बन के
तुम्हारा सारा दुःख पी जाऊ
और तुम्हे खबर भी हों
मगर तुम बिन बरसे बदल की तरहां
मुंह चिढाते उपर से गुज़र जाते हो
ये तुम क्यूँ कर ऐसा कर जाते हों


दो
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तुम आज फिर मुझे
परिंदे सा छू कर चले गये
मै आज फिर उसी
जानी पहचानी
सिहरन में
जी जी उठी
मर मर उठी