रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |
यह ब्लॉग खोजें
बुधवार, 15 सितंबर 2010
खारिज
मैंने सपने में भी
दंश को चुभने की इजाजत न दी
और तुमने मुझे
सरेराह छलनी कर दिया ,
अब कहते हो , मुझे माफ़ करो |
सम्बोधन की दुहाई दे कर
आत्मा को पी जाने वाले
हे काठ पुरुष !
तुम्हे तरलता , सरलता से क्या सरोकार ?
तुम्हे तुम्हारी निजता प्यारी है
फिर ये सेंधमारी क्यों ?
तुम सूखे हुए, जल का ,एक दाग हो
जिसे गीले कपड़े से पोछ के छुड़ाना है |
तुम चाहते हो , तुम्हे मेरी अपनी सम्वेदनाओं की तह तक
पहुचाने के लिए
मुझे मेरे अपने ही मरुस्थल से गुजरना पड़े |
ये कैसी शर्त है ?
जाओ ,चले जाओ |
अब मै अपनी छाती में
बारिश की बूंदें भरुंगी |
एक महासागर बनाउंगी
और अपने मरुस्थल में
एक पौधा भी रोपूंगी
जिसकी छाँव से तुम्हे अभी से वर्जित करती हूँ |
जाओ जाओ !
इसी पल से मै तुम्हे अपने मरुस्थल से मुक्त करती हूँ ,
जाओ ! तुम्हे सिरे से खारिज करती हूँ |
सदस्यता लें
संदेश (Atom)