रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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बुधवार, 7 अप्रैल 2010

एक अदद ख्वाहिश

प्रश्नचिन्हों से परे भी कोई वजूद होता है ?
तीन तीन पीढियां ग़ुजर जाती है वही शाश्वत प्राचीनतम रोजगार करते हुए .
हाँ ,वो एक बाजारू औरत है .
हजारों उपलब्धियों की हकदार , अपने आप में खास ,ये औरत तमाम आयामों से गुजरते हुए आज ठिठक कर खड़ी हुई तो समाज में कोहराम मच गया .वो सबकी निगाहों में आ गई .हर रोज जो सबकी  निगाहों से गुजरती थी आज एक लहुलुहान सवाल बन गई .
औलाद की कशिश उसके सीने में मानो जमा हुआ दूध थी .वो अपने लिए कुछ सुख के पल चाहती है .छाती की जकडन से मुक्त होना चाहती है .दूध का सोता बहाना चाहती है .नन्ही नन्ही मुट्ठी में अपनी तर्जनी को बार बार ,हजार बार कैद करवाना चाहती है  लिजलिजी ,नर्म ,गुलाबी पेशानी पे पसीने से चिपके बालों को आहिस्ता से हटाना चाहती है .वो एक नन्ही जान ,एक बच्ची गोद लेकर माँ की तरह उसकी परवरिश कर अपने हिस्से की माँ बनना चाहती है मगर उसकी नीयत पे सबको शक है .
शक भी कितना घिनौना है कि ये औरत एक बच्ची को गोद लेकर अपना बुढ़ापा सवारना चाहती है .
उफ ..... माँ के इस पाकसाफ जज्बात को बदनाम ना करो .वो बच्ची यतीम है उसे यतीम ही रहने दो ये बगैरत दुनिया उसका आंचल भी महफूज न रहने देगी .
बंजर धरती में उगी इस ख्वाहिश की नर्म कोपल को वही दफ़न कर दो .इस ख्वाहिश पर इस औरत का कोई हक नही .रिश्तों से
परे वो सिर्फ मादा है जो अपने नमकीन आसुओं को सदियों से पीती चली आ रही है

छन छन के स्वर में जैसे .............



सूना सूना पन्ना हो 
शब्दों का गहना हो 
स्याही की होली हो 
भावों की अठखेली हो 


मन भी कुछ चंचल हो 
आखों में अंजन हो 
हाथों पे मेहँदी और 
माथे पे कुमकुम हो 


झरने के नीचे इक 
चाँदी की थाली हो 
छन छन के स्वर में जैसे
कविता मतवाली हो