रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |
यह ब्लॉग खोजें
सोमवार, 26 जुलाई 2010
माँ
मैंने देखा है उसे
बार बार
कई बार
बहुत बार
मगर उसकी जगह बदली नही है |
उसी रेलवे पुल के नीचे
चिथड़ों में लिपटी
पीली पीली सूखी निगाहों से
वह हर आते जाते को तकती है ,
वह अपने गुमशुदा बच्चे को
तलाशती है
उसे जिसे वह बरसों पहले
इसी भीड़ में खो चुकी है |
एक यकीन है उसे कि वह मिल जायगा
और वह उसे उसी तरह पहचान लेगी
जिस तरह वफादार कुत्ता अपने मालिक को
बरसों बाद पहचान लेता है |
ये बात मैंने नही खुद उसने कही है
तब, जब गिरने से उसके घुटने
छिल गये थे और वो रो रही थी कि
''अब मुझे मेरा लाडला मिल जाना चाहिए ''
पर कोई उसका बच्चा बनने को तैयार नही |
इस सच से नावाकिफ , जबर्दस्त यकीन के साथ
उसी पुलिया के नीचे
वह आज भी हर आते जाते को तकती रहती है
क्यों कि
वह माँ है |
शनिवार, 24 जुलाई 2010
जरूरत
जिन्दगी से हमे कितना चाहिए और क्या चाहिए
ये इतना मायने नही रखता जितना की
जिन्दगी से मुझे क्यों चाहिए और कैसे चाहिए
ये मायने रखता है |
कितना चाहिए की कोई सीमा नही ,
क्या चाहिए का कोई अंत नही
क्यों चाहिए में एक वजह है
कैसे चाहिए में एक वजन है |
हम पाते है खुश हो जाते है
रम जाते है थम जाते है
क्यों और कैसे को साथ रखे तो
निष्क्रिय होने से बच जाते है | ,
ये इतना मायने नही रखता जितना की
जिन्दगी से मुझे क्यों चाहिए और कैसे चाहिए
ये मायने रखता है |
कितना चाहिए की कोई सीमा नही ,
क्या चाहिए का कोई अंत नही
क्यों चाहिए में एक वजह है
कैसे चाहिए में एक वजन है |
हम पाते है खुश हो जाते है
रम जाते है थम जाते है
क्यों और कैसे को साथ रखे तो
निष्क्रिय होने से बच जाते है | ,
मंगलवार, 13 जुलाई 2010
वो मासूम सवाल
चिनार का दरख्त
मोगरे के फूल
पारिजात की पंखुडियां
और गुलाब की खुश्बू
कैक्टस ने पूछा -----
''सब पे तो लिखती हो
मुझ पे क्यों नही लिखा ?''
और मै उसके मासूम से सवाल पे
शर्मिंदा शर्मिंदा हो गई |
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
लकड़ी की चौकी
मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ
धूप और बारिश दोनों मेरी हमजोली हैं|
सर्दी की धूप रंगीन होती है ,खूब हंसी ठिठोली होती है
गर्मी की रात हसीन होती है संदेशों की लुकाछुपी होती है
नवजात शिशु की मालिश ,उसकी किलकारियों की मै गवाह हूँ
मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ
एक तरफ धूप में अचार और मसालों की सोंधी खुशबु से
मेरा पूरा जिस्म गनगनाता है तो दूसरी तरफ पड़ोसनों की
रस भरी बतकही पे मै मन ही मन मुस्कुराती हूँ
साग का चुनना चावल का बिनना तरकारियों का कतरना
चटनियों की तैयारी इन सबको भी मै खूब पहचानती हूँ
मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ
पंडित जी का संचित ज्ञान भी अदभुत है
कथा बाचने की कला में वे निपुण है
सुन कर मै मुग्ध हूँ आत्मविभोर हूँ भाग्यशाली हूँ
उनके दलान की मै बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ
कभी पुरुषों के ठहाकों का हिस्सा बनती हूँ
कभी औरतो की गोष्ठियों का रस पीती हूँ
उलाहनों और नाराजगियों को भी देखा है
रूठना और मनाना भी अब जान गयी हूँ
कभी कभी मुझ पे कपड़े है सूखते
वो पानी की नमी मुझे उतना ही देती है सुकून
जितना सर्दियों में बक्से से निकले गर्म कपड़े स्वेटर और शॉल
रजाइयों और कम्बलों की गर्माहट सेंकती है मेरी बूढी हड्डियों को
दिन में कई बार भरपूर नींद भी सो जाती हूँ मै
मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ
बच्चों की धमाचौकड़ी ,छुप्पनछुपाई ,सत्तिल्लो और उंच नीच के खेल के बीच
दादी अम्मा सी हुलस हुलस जाती हूँ
बन्ना बन्नी और सोहर के कई गीत मन ही मन गुनगुनाते हुए
खूब फूलो फलो ,सदा सुहागिन रहो का आशीर्वाद
बहू - बेटियों को दे दे सुख पाती हूँ
मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ .
सदस्यता लें
संदेश (Atom)