भावनाओं की जो अकूत सम्पदा
उकेर गये हो कैनवास पर
हे चित्रकार !
कौन कहता है तुम विलुप्त हो गए हो
परिदृश्य से |
तुम अपने सुकर्म से सकर्म
उपस्थित हो
यहीं हो , यहीं कहीं हो |
तुम्हारी अँगुलियों ने उकेरीं है जो
लाल , पीली , नीली , हरी लकीरें
पूरी शिद्दत से अपने होने का
दम भरती रहेंगी ताउम्र
ये बात अलग है
कि उन्हें तराशने वालेतुम्हारे हाथ
अब कभी न थिरकेंगे |
न मिले , कोई गिला नही इन लकीरों को
अर्थ युक्त भरपूर जिन्दगी जी है इन्होंने तुम्हारे साथ |
आने वाले वक्त में
ये लकीरें रहबर बनेंगीं
तराशेंगी और अंगुलियाँ और वजूद |
बिना वक्त की बंदिश के
देखना पनपेगा फिर इक पेड़ तुम्हारी तरहां
कि साये की मौत कभी नही होती |