रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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शुक्रवार, 10 जून 2011

हुसैन --श्रद्धांजलि


भावनाओं की जो अकूत सम्पदा 
उकेर गये हो कैनवास पर 
हे चित्रकार ! 
कौन कहता है तुम विलुप्त हो गए हो 
परिदृश्य से | 

तुम अपने सुकर्म से सकर्म
उपस्थित हो 
यहीं हो , यहीं कहीं हो | 

तुम्हारी अँगुलियों ने उकेरीं है जो 
 लाल , पीली , नीली , हरी लकीरें 
पूरी शिद्दत से अपने होने का 
दम भरती रहेंगी ताउम्र   
ये बात अलग है 
कि उन्हें तराशने वालेतुम्हारे  हाथ
 अब कभी न थिरकेंगे | 

न मिले , कोई गिला नही इन लकीरों को 
अर्थ युक्त भरपूर जिन्दगी जी है इन्होंने तुम्हारे साथ | 

आने वाले वक्त में 
ये लकीरें रहबर बनेंगीं 
तराशेंगी और अंगुलियाँ और वजूद | 
बिना वक्त की बंदिश के 
देखना पनपेगा फिर इक पेड़  तुम्हारी तरहां 
कि साये की मौत कभी नही होती |