रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |
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मंगलवार, 6 जुलाई 2010
लकड़ी की चौकी
मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ
धूप और बारिश दोनों मेरी हमजोली हैं|
सर्दी की धूप रंगीन होती है ,खूब हंसी ठिठोली होती है
गर्मी की रात हसीन होती है संदेशों की लुकाछुपी होती है
नवजात शिशु की मालिश ,उसकी किलकारियों की मै गवाह हूँ
मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ
एक तरफ धूप में अचार और मसालों की सोंधी खुशबु से
मेरा पूरा जिस्म गनगनाता है तो दूसरी तरफ पड़ोसनों की
रस भरी बतकही पे मै मन ही मन मुस्कुराती हूँ
साग का चुनना चावल का बिनना तरकारियों का कतरना
चटनियों की तैयारी इन सबको भी मै खूब पहचानती हूँ
मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ
पंडित जी का संचित ज्ञान भी अदभुत है
कथा बाचने की कला में वे निपुण है
सुन कर मै मुग्ध हूँ आत्मविभोर हूँ भाग्यशाली हूँ
उनके दलान की मै बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ
कभी पुरुषों के ठहाकों का हिस्सा बनती हूँ
कभी औरतो की गोष्ठियों का रस पीती हूँ
उलाहनों और नाराजगियों को भी देखा है
रूठना और मनाना भी अब जान गयी हूँ
कभी कभी मुझ पे कपड़े है सूखते
वो पानी की नमी मुझे उतना ही देती है सुकून
जितना सर्दियों में बक्से से निकले गर्म कपड़े स्वेटर और शॉल
रजाइयों और कम्बलों की गर्माहट सेंकती है मेरी बूढी हड्डियों को
दिन में कई बार भरपूर नींद भी सो जाती हूँ मै
मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ
बच्चों की धमाचौकड़ी ,छुप्पनछुपाई ,सत्तिल्लो और उंच नीच के खेल के बीच
दादी अम्मा सी हुलस हुलस जाती हूँ
बन्ना बन्नी और सोहर के कई गीत मन ही मन गुनगुनाते हुए
खूब फूलो फलो ,सदा सुहागिन रहो का आशीर्वाद
बहू - बेटियों को दे दे सुख पाती हूँ
मै दालान में पड़ी बरसों पुरानी लकड़ी की चौकी हूँ .
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