रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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रविवार, 30 मई 2010

औरत

औरत को अगर तकलीफ हो
तो पहले बोलती नही थी
आज बोलती है , चीखती है
प्रतिरोध करती है , जवाब भी मांगती है |


ये तो क्रिया प्रतिक्रिया है
लेकिन अगर औरत ने इस
तकलीफ का जहर गटक लिया
और बेपरवाह हो कह उठी
'' शाख से टूट के गिरा तो क्या
पत्ता तो हूँ ना मै
सुपुर्दे खाक हो जाऊं
तो कोई नाम दे देना ''


तो ये स्थिति बड़ी विस्फोटक होगी
सृष्टि के नियम तक पे रखे रह जायेंगे
संतुलन असंतुलित हो जायेगा |


औरत का बेपरवाह हो जाना
समाज रूपी इमारत का
भरभरा कर ढह जाना है
मजबूत से मजबूत नीव भी
मूकदर्शक बन रह जाएगी |


विश्वकल्याण के लिए आह्वाहन है
''औरत को बेपरवाह ना बनने दो
उसे उसकी अस्मिता के साथ हक
ईमानदारी और इज्जत से जीने दो ''


ये अल्फाज कोई  भीख नही है
ताकीद है उन लोगों के लिए खासकर ,
जो सामाजिक समीकरण को
अपनी बपौती समझते है |


ख्याल रहे
दर्द बर्दाश्त की हद के बाद
दर्द नही रह जाता
वो हिस्सा सुन्न हो जाता है
उस पे किसी का असर नही होता |

गुरुवार, 27 मई 2010

सच


सख्त हथेली पे कुदरत की दो चीर है  


इक  जिन्दगी की है इक मौत की है ,


मैंने जिन्दगी की चीर को कलम से गहरा रंग दिया 


मौत ने हँस के कहा , तेरी स्याही फीकी है |

शनिवार, 22 मई 2010

हाँ ऐसा भी हुआ है


जब कोई दरख्त पत्तों से किनाराकशी करे 
तो पतझड़ है ऐसा बताते हो तुम 
पर वक्त ही जब बेवक्त झिडक दे 
 तो उसे क्या नाम देते हो तुम  ? 

समन्दर की मौजें चीख के कहती है ,
रहने दो अब ना सताओ उसे |
आसमाँ उसकी बेबसी पे 
चंद कतरे आसूं के बहा सके 
ऐसा भी तो नही , शायद बेबस है |

इस खूबसूरत समाज में  देखो ना 
क्या औकात है दरम्याने इन्सान की ,
आज की साँस भी उधर लिए बैठा है |
कल की खुराक का क्या आलम होगा 
ये सोच सोच के अपनी रात काटता है |

कुछ ना मिले तो अपने जिस्म का लहू बेचो 
उस पर तो हक अपना है , वो तो बेवफा नहीं?
चार पल की खोखली जिन्दगी 
दो पल में सिमट आये , हाँ ऐसा भी हुआ है |

गुरुवार, 20 मई 2010

हादसों के परिप्रेक्ष्य में


कोई नदी नही बुलाती है,कोई पटरियां नही पुकारती है , ना कोई जहर आवाज देता है और ना ही कोई रस्सी अपनी ओर खीचतीहै फिर भी जब दिल टूटता है तो हादसे होते  है और इसके सबसे ज्यादा शिकार मासूम बच्चे होते है . इन मासूमों की  मानसिक तकलीफ कोअगर सचमुच दिल से महसूस करना है तो उसका एक ही जरिया है और वह है अभिभावकों का अपने भीतर  झाँकना.यानि हम उसे कैसा महौल दे रहें है और हम से कहाँ  चूक हो रही है .बजाय इसके कि एक दूसरे पर हम दोषारोपण करें  इससे परे हट कर शुरू की  जाये एक इमानदार कोशिश तो इस समस्या का समाधान कम से कम कुछ हद तक तो निश्चित ही 
सम्भव है 
जुबान की मार  भीतर तक तोड़ देती है इस बात को हर इन्सान को हर  परिप्रेक्ष्य में ध्यान में रखना चाहिए खास कर तब जब कच्ची मिट्टी का मन आहत हो . सफलता किसे अच्छी नही लगती है, असफल होना भला कौन चाहता है लेकिन यही वो जगह है जहाँ सही ढंग से अहसास करना समाज की एक नैतिक जिम्मेदारी है .
अभिभावक बच्चो को समय दें , उन्हें ये एहसास कराएँ की अनगिनत के इस जंगल में तुम अमूल्य हो तुम्हारा होना एक सुखद एहसास है,कोई तुम्हारी जगह नही हो सकता है . ये एक ऐसी भावना है जो बच्चों केदिल के तार को माँ के आंचल और पिता की ऊँगली से कस के जोडती है,सुरक्षा का एहसास कराती है . 
गुरुजनों से नम्र निवेदन हैकि विद्यालयों में ऐसा मौहौल बना कर रखें  जिससे अन्य बच्चे अंकों के आधार पर सफल हुए साथियों को प्रेरक की श्रेणी में रखें . उनके समीप जाने की झिझक खत्म हो .उनके जैसा बनने की चाह जगे . अलख जगना बहुत जरूरी है . उसे दंडित कर के ,आहत कर के ,शर्मिंदा कर के हम उनमे ये अलख नही जगा सकते है .उनके बिखरे हुए आत्मविश्वास को दोनों पक्ष मिल कर ही खड़ा कर सकते है 
इन रेल की पटरियों को ,रस्सी के फंदों को ,जानलेवा गोलियों को ,नहर और नदियों की गहराइयों को हराना जरूरी है अगर हम इमानदारी से अपने  कर्तव्य  का निर्वाह करें तो ये काले साये किसी का कुछ नही बिगाड़ सकते 
इन सबके उपर मै अपने नन्हे दोस्तों से भी ये कहना चाहती हूँ की जितना वे अपने लिए सर्वोत्तम कर सकते है,यदि उसे पूरी इमानदारी से , लगन से अभ्यास करें बारबार करे ,कई  बार करें तो यकीनन बेहद सफल शख्सियत के मालिक हो सकते है 
नदी कई गहराई में आंसू है समन्दर क़ी  गहराई में .मोती है . बैठ के सोचो धैर्य से सोचो , बारबार सोचो कि हमें कौन सी गहराई में उतरना हैऔर क्या पाना है .
अप्रैल से जून तक के बीच हर साल न जाने कितने घरों में कभी न खत्म होने वाला सन्नाटा पसर जाता है,दुःख पहाड़ हो जाता है,आंसू दरिया कि शक्ल अख्तियार कर लेते है .अब बस करो .एक अच्छा इंसान बना दो ,जन्म लेने का ऋण उतर जायेगा .

मंगलवार, 18 मई 2010

क्या पानी टूटता है ?


उम्र के दरिया में 
वक्त ने 
पानी की दीवार की तरह 
एक ऐसी ऊँची दीवार खड़ी की है 
जिसके इस ओर तो 
अपनी शक्ल दिखती है 
पर उस ओर 
कुछ बेहद अपना रह गया है .


पत्थर से पानी को  मारना  
कितना बेमानी लगता  है 
यकीनन मेरी ये कोशिश 
बिना हश्र के होगी 
सिर्फ और सिर्फ उसकी लहरें 
मेरे मजाक़ बन जाने की गवाह होंगी .  
      क्या मालूम कि
उस दीवार के पीछे 
कोई रहम का बंजारा ठहरा हो 
ये देखने की  कोशिश फिर 
पानी की  दीवार को 
पत्थर से तोड़ने कि तरह है .


क्या पानी टूटता है ? 

बुधवार, 12 मई 2010

आपस क़ी बातें

  '' मम्मा ,ये क्या लिख रही है आप ब्लॉग पर ?
''  मैंने रोटी बेलते हुए सहज स्वर में पूछा ''क्यों ,क्या लिखा है ? '' 
"मम्मा जो आपका लेटेस्ट ब्लॉग है ''क्या हुआ जो सड़के नप  गई 
तुम्हारे कदमो से
एक फासला था तय हो गया ख्वाबों में ही सही ''
"अच्छा  वो ,क्यों क्या हुआ पसंद नही आया ?''   
आपको पता है  मम्मा मेरी सब फ्रेंड्स आप की फैन है '' 
 ''तो ?''
 '' तो क्या मम्मा ,वो सब हँस रही थी कि काफी रोमेंटिक लाइने लिखी है आंटी ने ''
"सो तो है ''
"मम्मा  प्लीज ''
मैंने गैस बंद क़ी,मुस्कुराते हुए उसके कंधे पे हाथ रख के पूछा ''क्या खुद से मुखातिब होने के लिए भी मुझे माँ और बीवी 
बनना पड़ेगा ?''
''आइ ऍम सौरी मम्मा  ''और वो मेरे गले में बाहें डाल झूल गई .

मोर का पंख



तुम्हे किताबों की शक्ल में पढ़ते पढ़ते 
न जाने कब मै उसमे रक्खा 
मोर का पंख हो गई
ये क्या गजब 
बात हो गई.

सोमवार, 10 मई 2010

कदम

 
क्या हुआ जो सडकें नप गईं
तुम्हारे कदमों से .
एक फासला था , तय हो गया 
ख्वाबों में ही सही .