रखदो चटके शीशे के आगे मन का कोई खूबसूरत कोना ,यह कोना हर एक टुकड़े में नज़र आये गा |

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शनिवार, 22 मई 2010

हाँ ऐसा भी हुआ है


जब कोई दरख्त पत्तों से किनाराकशी करे 
तो पतझड़ है ऐसा बताते हो तुम 
पर वक्त ही जब बेवक्त झिडक दे 
 तो उसे क्या नाम देते हो तुम  ? 

समन्दर की मौजें चीख के कहती है ,
रहने दो अब ना सताओ उसे |
आसमाँ उसकी बेबसी पे 
चंद कतरे आसूं के बहा सके 
ऐसा भी तो नही , शायद बेबस है |

इस खूबसूरत समाज में  देखो ना 
क्या औकात है दरम्याने इन्सान की ,
आज की साँस भी उधर लिए बैठा है |
कल की खुराक का क्या आलम होगा 
ये सोच सोच के अपनी रात काटता है |

कुछ ना मिले तो अपने जिस्म का लहू बेचो 
उस पर तो हक अपना है , वो तो बेवफा नहीं?
चार पल की खोखली जिन्दगी 
दो पल में सिमट आये , हाँ ऐसा भी हुआ है |